Pages

Friday, August 31, 2012

दाल खाने के चक्कर में

यज्ञ शर्मा 
मुंबई ठाकुर साहब का दामाद आया है। घर की मुर्गी बहुत खुश है। उसकी जान बच गयी। सास दामाद को दाल बना कर खिलाएगी। इ़ज़्ज़त का सवाल है। दामाद की खातिर अच्छी होनी चाहिए ताकि उसे लगे कि ससुराल में उसकी पूरी इ़ज़्ज़त होती है। जिन सम्पन्न घरानों में यह कहावत आम तौर पर कही जाती थी− घर की मुर्गी दाल बराबर, आज उन घरानों में इस कहावत का इस्तेमाल वर्जित है− दाल की बेइ़ज़्ज़ती होती है। दामाद जब अपने घर लौटा तो महीने भर तक अपनी ससुराल के गुण गाता रहा, ''मैं जितने दिन रहा, सास जी ने रोज़ दोनों टाइम दाल बना कर खिलायी। नाश्ते में भी दालमोठ ज़रूर होती थी।''
मध्यम वर्गीय परिवार में रिश्ते की बात चल रही है। लड़के वाले इस बात पर बड़ा ज़ोर दे रहे हैं कि बारातियों की खातिर अच्छी होनी चाहिए। खाने में दाल ज़रूर होनी चाहिए। जब लड़के के पिता ने यह बात तीसरी बार कही तो लड़की का पिता चुप न रह सका, ''समधी जी, हम अपनी ओर से कोई कसर नहीं रखेंगे। लेकिन एक बात आपको तय करनी है, आपको दहेज चाहिए या दाल?''
मेरे जैसे लोग, जिन्हें मु़फ्त की पार्टियों में जाने का अच्छा अनुभव है, वे जानते हैं कि बुफ़े में सबसे लम्बी लाइन चिकन के डोंगे के आगे लगती है। पांच के बाद छठे आदमी के लिए एक टुकड़ा भी नहीं बचता। अब यही हाल दाल का होने वाला है।
सेठ जी के घर में खाना बनाने वाली महाराजिन दाल भिगो रही थी। उसने देखा किसी का ध्यान नहीं है तो चुपके से दाल का एक दाना उठा कर अपनी अंटी में खोंस लिया। लेकिन सेठानी की नज़र से यह बात छिपी न रही। सेठ लोग ऐसे ही सेठ नहीं बन जाते। चोरी पकड़ी गयी तो नौकरानी गिड़गिड़ाने लगी, ''मेरा बेटा बहुत छोटा है। नासमझ है। बार−बार पूछता है− माई, दाल कैसी होती है? सोचा ले जा कर एक दाना दिखा दूंगी। खा नहीं सकता, देख तो ले।'' सेठानी दयालु थी, बोली, ''ठीक है। आज तो छोड़ देती हूं। आगे ऐसा नहीं होना चाहिए।''
एक समय, एक कहावत बनायी गयी थी− भूखे जन न होय गोपाला। उसके जवाब में कहा गया− दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुन गाओ। भूखे जन न होय गोपाला' वाली कहावत आज भी इस्तेमाल की जाती है। लेकिन कोई 'दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुन गाओ' नहीं कहता।
सुबह−सुबह पत्नी बोली, ''दाल खत्म हो गयी है।'' मैं तब तक नहाया नहीं था। रात को जो कपड़े पहन कर सोया था, वही मुसे हुए कपड़े पहन कर किराने की दुकान पर चला गया। अरहर की दाल की ओर इशारा करके पूछा, ''कैसे दी?'' दुकानदार ने अपनी दाल की ओर देखा, फिर मेरे मुसे हुए कपड़ों पर नज़र डाली और बोला, ''बोहनी के वक्त मूड मत खराब करो। जो लेना है उसका भाव पूछो।'' फिर वह अपने नौकर पर चिल्लाया, ''कितनी बार बोला, दाल यहां एकदम सामने मत रख! लोग बेकार में भाव पूछ कर टाइम खराब करते हैं।''
समय बदलता है। हालात बदलते हैं। भाषा भी बदलती है। साधारण स्थिति का दामाद, अपनी साधारण स्थिति की ससुराल में पहुंचा। सास ने पूछा, ''कुंवर जी क्या खाओगे ?'' दामाद बोला, ''दाल।'' सास ने पूछा, ''दाल?'' ''हां, कोई भी दाल।'' तब साली से नहीं रहा गया, ''जीजाजी, ज़रा आईने में शक्ल देख ली होती− ये मुंह और कोई भी दाल!'' आजकल मूंग भी मसूर से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। जो कहावत की चतुराई का प्रतीक हुआ करती थी, आजकल वह समाज में आपकी स्थिति का प्रतीक बन गयी है। पहले लोग कहते थे− तुम डाल−डाल, हम पात−पात। आजकल कहते हैं− तुम दाल−दाल, हम घास−पात।
आज हर गरीब के घर में यह यक्ष प्रश्न गूंज रहा है− दाल कैसी होती है?! मज़दूर की बीवी ने बेटे के सामने एल्यूमिनियम की मुड़ीतुड़ी थाली रख दी। बेटे ने रोटी का एक कौर तोड़ कर मुंह में डाला और पूछा, ''अम्मां, यह दाल क्या होती है?'' मां तुरंत टोकते हुए बोली, ''बेटा, धीरे बोल। कहीं बाज़ार सुन न ले। वरना वह जान जाएगा कि हम लोग एक वक्त रोटी खा लेते हैं।'
sabhar prabhasakshi.com

No comments:

Post a Comment