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Saturday, August 11, 2012

देवताओं के वास्तुशिल्पी विश्वकर्मा

देवताओं के इंजिनियर, बाबा विश्वकर्मा ने भूलोक में आकर राजमहलों से लेकर आम घरो का अभिकल्पन डिजाइन तैयार किया है । ब्रह्माजी के प्रपौत्र वास्तुकार विश्वकर्मा को ही सर्वप्रथम सृष्ठि निर्माण में वास्तुकर्म करने वाला कहा जाता है । इन्द्रलोक स्वर्गलोक सहित भूलोक और पाताल लोक के राजमहलों से लेकर प्राचीनतम मन्दिर देवालय नगर तथा ग्रामीण आवासो. का निर्माता विश्वकर्मा को ही कहा जाता है । देवता, दानव और मनुष्य आदि को छत प्रदान करने वाले शिल्पी और वास्तुकार विश्वकर्मा ही माने जाते है । प्राचीन आर्याव्रत यानि भारत को विश्वकर्मा की ही यह वास्तुकला धीरे-धीरे सारे संसार में फैली है और आज भी हमारा वास्तुविज्ञान किसी भी निर्माणाधीन संरचना के लिए खंगाला जाता है।



प्राचीनकाल में वैदिक युग से त्रेतायुग और द्वापर युग तक राजाओं की जितनी राजधानियां, मन्दिर देवालय और प्रमुख नगर थे, प्रायः सभी देवताओं के वास्तुविशेषज्ञ विश्वकर्मा की ही बनाई कही जाती हैं। यहां तक कि सतयुग का स्वर्गलोक, त्रेतायुग की लंका, द्वापर की द्वारिका और कलयुग का हस्तिनापुर आदि विश्वकर्मा द्वारा ही रचित और निर्मित हैं। सुदामापुरी की तत्क्षण रचना के बारे में भी यह कहा जाता है कि उसके निर्माता विश्वकर्मा ही थे। इससे यह आश्य लगाया जाता है कि धन-धान्य और सुख-समृद्धि की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों को बाबा विश्वकर्मा की पूजा करना आवश्यक और मंगलदायी है। विश्वकर्मा अपने तत्काल और रातोरात ही राजमहलों की संरचना और भू,खण्ड पर इमारत खडा करने में सिद्धहस्त थे। देवतागण-यक्षगण मनुष्य और राक्षण सभी उनकी सेवायें और आशीर्वाद लेकर आजके वास्तुविज्ञान तक पहुंचे है। यही कारण है कि आज प्रत्येक शिल्पी, मिस्घ्त्री राज, बढई , कारीगर तथा अभियंता, तकनीकी विषेषज्ञ साल मे एक बार अवश्य बाबा विश्वकर्मा की पूजा करते है।



एक कथा के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में सर्वप्रथम नारायण अर्थात साक्षात विष्णु भगवान जलार्णव (क्षीर सागर) में शेषशय्या पर आविर्भूत हुए। उनके नाभि-कमल से चर्तुमुख ब्रह्मा दृष्टिगोचर हो रहे थे। ब्रह्मा के पुत्र धर्म तथा धर्म के पुत्र वास्तुदेव हुए। कहा जाता है कि धर्म की वस्तु नामक स्त्री (जो दक्ष की कन्याओं में एक थी) से उत्पन्न वास्तु सातवें पुत्र थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक थे। उन्हीं वास्तुदेव की अंगिरसी नामक पत्नी से विश्वकर्मा उत्पन्न हुए। पिता की भांति विश्वकर्मा भी वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बने।



भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप बताए जाते हैं- दो बाहु, कहीं चार बाहु एवं कहीं कही पर दश बाहु तथा एक मुख, कहीं चार मुख एवं कहीं पर पंचमुख। उनके मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ नामक पांच पुत्र हैं। यह भी मान्यता है कि ये पांचों वास्तुशिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत थे और उन्होंने कई वस्तुओं का आविष्कार भी वैदिककाल में किया। इस प्रसंग में मनु को लोहे से, तो मय को लकड़ी, त्वष्टा को कांसे एवं तांबे, शिल्पी ईंट और दैवज्ञ सोने-चांदी से जोड़ा जाता है। भगवान विश्वकर्मा की महत्ता स्थापित करने वाली एक कथा भी है। इसके अनुसार वाराणसी में धार्मिक व्यवहार से चलने वाला एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था। अपने कार्य में निपुण था, परंतु स्थान-स्थान पर घूम कर प्रयत्न करने पर भी भोजन से अधिक धन नहीं प्राप्त कर पाता था। पति की तरह पत्नी भी पुत्र न होने के कारण चिंतित रहती थी। पुत्र प्राप्ति के लिए वे साधु-संतों के यहां जाते थे, लेकिन यह इच्छा उसकी पूरी न हो सकी। तब एक पड़ोसी ब्राह्माण ने रथकार की पत्नी से कहा कि तुम भगवान विश्वकर्मा की शरण में जाओ, तुम्हारी इच्छा पूरी होगी और अमावस्या तिथि को व्रत कर भगवान विश्वकर्मा माहात्म्य को सुनो। इसके बाद रथकार एवं उसकी पत्नी ने अमावस्या को भगवान विश्वकर्मा की पूजा की, जिससे उसे धन-धान्य और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगे। उत्तर भारत में इस पूजा का काफी महत्व है। और आज भी भाद्रपद और कार्तिक में विश्वकर्मा की पूजा बहुत ही श्रद्धापूर्वक की जाती है !



वैसे तो दिवाली के बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वितीया के दिन विश्वकर्मा पूजा पूरे धूमधाम से सारे देष में मनाई जाती है। इस दिन पूरे भारत के विभिन्न राज्यों में, खासकर औद्योगिक क्षेत्रों, फैक्ट्रियों, लोहे की दुकान, वाहन शोरूम, सर्विस सेंटर आदि में विश्वकर्मा पूजा होती है। इस मौके पर मशीनों, औजारों की सफाई एवं रंगरोगन किया जाता है। इस दिन ज्यादातर कल-कारखाने बंद रहते हैं और लोग हर्षोल्लास के साथ भगवान विश्वकर्मा की पूजा करते है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, दिल्ली आदि राज्यों में भगवान विश्वकर्मा की भव्य मूर्ति स्थापित की जाती है और उनकी आराधना की जाती है, लेकिन चंडीगढ़ और पंजाब में दीपावली के दूसरे दिन यह पर्व मनाया जाता है। प्रतिवर्ष उत्तर भारत के कई राज्यो में17 सितंबर को श्रमदिवस के रूप में जाना जाता है। इस दिन भी विश्वकर्मा समाज के लोग बाबा विश्वकर्मा पूजा अवश्य करते हैं।

भगवान विश्वकर्मा की पूजा और यज्ञ विशेष विधि-विधान से होता है। इसकी विधि यह है कि यज्ञकर्ता स्नानादि-नित्यक्रिया से निवृत्त होकर पत्नी सहित पूजास्थान में बैठे। इसके बाद विष्णु भगवान का ध्यान करे। तत्पश्चात् हाथ में पुष्प, अक्षत लेकर- ओम आधार शक्तपे नमरू और ओम् कूमयि नमरूय ओम् अनन्तम नमरू, पृथिव्यै नमरू ऐसा कहकर चारों ओर अक्षत छिड़के और पीली सरसों लेकर दिग्बंधन करे। अपने रक्षासूत्र बांधे एवं पत्नी को भी बांधे। पुष्प जलपात्र में छोड़े। इसके बाद हृदय में भगवान विश्वकर्मा का ध्यान करे। रक्षादीप जलाये, जलद्रव्य के साथ पुष्प एवं सुपारी लेकर संकल्प करे। शुद्ध भूमि पर अष्टदल कमल बनाए। उस स्थान पर सप्त धान्य रखे। उस पर मिट्टी और तांबे का जल डाले। इसके बाद पंचपल्लव, सप्त मृन्तिका, सुपारी, दक्षिणा कलश में डालकर कपड़े से कलश का आच्छादन करे। चावल से भरा पात्र समर्पित कर ऊपर विश्वकर्मा बाबा की मूर्ति स्थापित करे और वरुण देव का आह्वान करे। पुष्प चढ़ाकर कहना चाहिए- हे विश्वकर्मा जी, इस मूर्ति में विराजिए और मेरी पूजा स्वीकार कीजिए। इस प्रकार पूजन के बाद विविध प्रकार के औजारों और यंत्रों आदि की पूजा कर हवन यज्ञ करे। अन्त में किसी एक या एक से अधिक कुशल कारीगरो को विशेष सम्मान देकर विश्वकर्मा पूजा सम्पन्न होती है । ऐसा कहते हैं कि निर्माण और उत्पादन कार्य से जुडे कुशल मिस्त्रीध्कारीगर की आत्मा में ही चिश्वकर्मा विराजमान है ।



विश्वकर्मा और रावण की लंका ...



त्रेतायुग में जब रावण ने सीताजी का हरण किया तो उनको मुक्त कराने के लिए हनुमानजी लंका में सीतामाता का पता लगाने गये । इसी दौरान रावण के सैनिको ने हनुमानजी को पकड कर रावण के दरबार में पेष कर दिया! वहां पर हनुमानजी को डराया गया और प्रताडना के वास्ते सर्वसम्मति से राय बनी की हनुमानजी की इस गुस्ताखी के लिए उनकी पूंछ में तेल लगा करके आग लगा दी जाए। फिर रावण के भरे दरबार में ऐसा ही हुआ । हनुमानजी तब अपनी मूल पूंछ को छुपाकर नकली पूंछ को लम्बा करते गये और रावण सेना ने उस पर तेलमिश्रित कपडा लपेट कर आग लगा दी । हनुमानजी वायुपुघ्त्र तो थे ही, उनके बाहर निकले ही 49 किस्म की हवायें तीव्र वेग से चलने लगी और वे हवा में उड्रते हुए रावण के आलीशान का महलों का दाहन करते रहे ! इस लंकादहन में सारी लंका खाक होगई परन्तु विभीषण की कुटिया बची रही क्यों उसने कुटिया के बाहर ..जय श्रीराम लिखा हुआ था ।



हनुमानजी के इस कृत्य से तिलमिलाये हुए रावण ने तत्काल ही देवराज इन्द्र को तलब किया और आदेश दिया कि अभी फौरन विश्वकर्मा जी को भेजा जाये ताकि रातोंरात फिर वैसी ही सोने की महलों से सज्जित लंका नगरी बन सके ।



डर और दबाब में तनावग्रस्त विश्वकर्माजी आये और उन्होने परिस्थितियो का जायजा लिया और सीताजी के हरण पर खिन्न हुए ! दुर्दान्त रावण के आगे उस समय देवता भी विवष हो जाते थे। रावण कुबेर तक को भयभीत करके देवताओं का सारा स्वर्णभण्डार लंका में खपा रखा था ! तब विश्वकर्मा ने विवश होकर रातोंरात वहीं स्वर्णनगरी लंका का निर्माण कर दिया !



लेकिन इस बार विश्वकर्माजी ने रावण तथा अन्य परिजनों के महल बनाते समय कुछ ऐसे वास्तुदोष प्रत्येक निर्माण में छोड दिये कि रावण का परिवार और राक्षस सेना एक एक कर विनाश की ओर बढ्रती गई और जबर्दस्ती दबाब में बनाये गये वास्तुदोष युक्त महल बाद में रावण के विनाष का कारण बन गये ! इस तरह कहा जाये तो विश्वकर्मा ने भी रावण के अन्त करने में अपना तकनीकी योगदान दिया ।



विश्वकर्मा के वास्तुशिल्प से ही वास्तुविज्ञान का जन्म हुआ जिसका वैदिक युग में कडाई ये पालन किया जाता था ! हर निर्माण के दौरान विश्वकर्मा के साथ साथ वास्तुदेव की भी पूजा और स्थापना की जाती है । यह प्रक्रिया भूमिपूजन के दौरान अपनाई जाती है ! वस्तुत विश्वकर्मा और वास्तुदेव आज भी चारो दिशाओं और दस द्वार और अन्तरिक्ष के अधिष्ठाता है और बिना उनके आशीर्वाद के कोई भी घर और महल ध् विल्डिंग आदि इन्सान को फलती नहीं है।



विश्वकर्मा के अनुचर सिद्धपुरुष महर्षि जमदग्नि कहते है कि अपने तपकालीन सिद्धियों में महर्षि जमदग्नि को देवताओं के वास्तुकार विश्वकर्मा से अनेक वरदान मिले थे जिससे वे सिद्धपुरुष और अवतारी कहलाये।



ब्रहमतेजस जिनका जागा हुआ है ऐसे महामानव अपनी सिद्धि, सामर्थ्य सम्पदा को समय आने पर प्रयुक्त करते और वह भी जनमानस को आत्मबल की सामर्थ्य व महत्ता समझाने के लिए न कि अहंकार के प्रदर्शन हेतु ।

हैहयवंशी सम्राट कीर्तवीर्य विंध्य प्रदेश को जीतकर, मित्र राजाओं और विजयी सेना सहित स्वदेश लौट रहे थे । प्रथम विराम उन्होंने नर्मदा पर महर्षि जमदग्नि के आश्रम में किया । विजय के अहंकार में डूबे राजा कीर्तवीर्य उस समय राजसी वैभव से पूर्णतः अलंकृत थे । उनकी हजारो सैनिक और योद्धा अपने हाथी घोड्रों पद लदे हुए चल रहे थे । महर्षि के दर्शन के बाद सम्राट कीर्तवीर्य सारे लश्कर सहित अपरान्ह मे वे आगे चलने को समुद्यत तो महर्षि ने शिष्टाचारवश स्वयं उपस्थित होकर कहा -- राजन् आप लोग थके हैं आज रात यहीं विश्राम कर लेते हो अच्छा रहता।

सम्राट हंस पडे, बोले-तपोनिधि आपका आग्रह तो ठीक है, पर हमारे साथ इतनी विशाल सेना और आपकी छोटी सी कुटिया में विपन्न स्थिति, दोनों में सामंजस्य कैसा ? कैसे खिलायेगे इस विशाल फौज को ?



महर्षि उनके अहंकार को ताड़ गये उन्होंने कहा-- राजन ..आप उसकी चिन्ता न करें, तपस्वी का धन तो भगवान है, भगवान तो सारे संसार को खिलाफ है आकी सेना है ही कितनी ?

कीर्तवीर्य महर्षि के आग्रह को टाल नहीं पाये और रात वहीं बिताने के इरादे से ठहर गये । अब वहां का दृश्य बदला । दूसरे ही क्षण आश्रम ने अपना रूप बदला ।चारो ओर विशाल महल खडे हो गये । गुलाब, मंदार, करवीर, यूथिका, लौंध्र, कृन्द, चंपक, आदि नाना प्रकार के सु्रगन्धित फूलों से सुसज्जित हो गया आश्रम ।छप्पन प्रकार के भोज्य भक्ष्य पकवान्न तथा मधुर पेय लेहय तथा चोष्य सभी प्रकार के सुस्वाद युक्त व्यंजन हर अतिथि के लिये राजमहलों को भी कान्तिहत करने वाले सुन्दर भवन और राजसी वेष धारण किये परिचारकध्सेवादार । यह सब देखकर सम्राट कीर्तवीर्य स्तब्ध रह गये । उन्हें सहसा विश्वास नहीं हुआ कि यह सब कोई सम्मोहन है अथवा स्वप्न या सचमुच ही महर्षि की योग सिद्धि। इतने ठाटबाट तो उनके महलो में भी उपलब्ध नहीं हैं !

राजा की विशाल सेना भी महर्षि का आतिथ्य पाकर कृतकृत्य हुई। कल तक चारो तरफ राजा कीर्तवीर्य की प्रशंसा के स्वर गूंज रहे थे पर आज हर व्यक्ति के मुख में एक चमत्कारी गुणानुवाद था, महर्षि की ब्राहमी शक्ति का। स्वयं महाराज कह रहे थे--भगवन ! आज हमारा राजसी और क्षत्रियबल आपके अलौकिक ब्रह्मबल और आपकी सिद्धि के सम्मुख हार मानता है और श्रद्धावान होकर शीश झुकाता है। मेरी सारी सेना और महायोद्धा आपके आगे नतमस्तक है। यह महर्षि जमदग्नि भगवान परशुपं. राम के पिता थे । आगे चलकर परशुराम ने हेहयवंशीय राजाओ से वर्चस्व की लड़ाई लडी और विजयी रहे।

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