निवेश का बुरा हाल: पिछले 3 सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश की स्थिति काफी खराब रही है। अप्रैल 2012 को खत्म तिमाही में पिछले वर्ष की तुलना में एफडीआई में 41 फीसदी की कमी आई है। इस दौरान फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट का आंकड़ा सिर्फ 185 करोड़ डॉलर ही रहा है। इससे भारत में उद्योगों की हालत लगातार पतली होती जा रही है। इसका नुकसान आम आदमी को महंगाई के रूप में झेलना पड़ रहा है।
जनता के पैसे से मंत्रियों का विदेशी टूर: आर्थिक बदहाली के बावजूद मई 2009 से लेकर जून 2011 के बीच यूपीए-2 सरकार के मंत्रियों ने 751 बार विदेशी यात्राएं की हैं। इस पर हुआ सारा खर्च आम आदमी की जेब से गया है। इस पैसे का इस्तेमाल कर अर्थव्यवस्था को थोड़ी मजबूती देने के लिए भी किया जा सकता था। मंत्रियों के विदेश दौरों का हिसाब लगाएं तो उन सभी ने 2 साल में कुल मिला कर 3000 दिन विदेश में बिताए। सबसे ज्यादा (51 बार) विदेशी टूर विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने किया है। सरकार की ओर से किफायत बरतने के निर्देश के बावजूद सरकारी खर्च का ग्राफ ऊपर ही जा रहा है। बढ़ा करंट अकाउंट डेफिसिट, रुपया भी लुढ़का: यूपीए के शासन काल में देश का करंट अकाउंट डेफिसिट भी कई गुना बढ़ चुका है। 2006-07 में 1000 करोड़ डॉलर रहा यह आंकड़ा अब 2011-12 में 7000 करोड़ डॉलर को भी पार कर चुका है। यानी 5 साल में यूपीए सरकार ने भारत के सिर 6000 करोड़ डॉलर का अतिरिक्त घाटा लाद दिया है। इस घाटे की भरपाई को लेकर सरकार की ओर से किए गए सारे प्रयास सीधे आम आदमी की जेब पर डाका डालने का काम करते हैं। उधर, पिछले 3 सालों में डॉलर के मुकाबले रुपया भी 30 फीसदी तक कमजोर हुआ है।
वित्त वर्ष 2012-13 की पहली तिमाही में देश की विकास दर में केवल 0.2 फीसदी का मामूली इजाफा हुआ है। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था फिर बुरी तरह आहत हुई है। यूपीए-2 के शासनकाल में लगातार विकास दर कम हुई है और आम आदमी की हालत बद से बदतर हुई है। 2009 से लेकर अब तक लगातार वित्तीय घाटा बढ़ रहा है। महंगाई आसमान पर है। नौकरियों का सूखा-सा पड़ने लगा है। डॉलर के मुकाबले रुपया लगातार दम तोड़ता दिख रहा है। आम जनता की क्रय शक्ति न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है
2004-09 के दौरान औसतन 8 फीसदी की दर से विकास करने के बाद भारत को अब यूपीए-2 के कार्यकाल (2009-12) में 6 फीसदी विकास दर हासिल करने में भी पसीने छूट रहे हैं। आखिर क्या है इसकी वजह?
बढ़ा नौकरियों का अकाल, घटी सैलरी: खराब अर्थव्यवस्था, बदहाल निवेश और लचर नीतियों के चलते पिछले 3 सालों में नौकरियों का भी अकाल पड़ गया है। एक सर्वे के मुताबिक 2009 से अब तक प्राइवेट कंपनियों ने हर साल करीब 20 से 50 फीसदी तक छंटनी की है। वहीं, सरकारी महकमे में भी अधिकतर मंत्रालयों ने नौकरी देने की रफ्तार काफी सुस्त कर दी है। इतना ही नहीं, नौकरियों के घटने के साथ-साथ सैलरी में भी 50 फीसदी तक की कमी दर्ज की गई है। कई बड़ी-बड़ी कंपनियों ने हजारों की संख्या में लोगों को काम से निकाला है।
कृषि पर कम ध्यान: 2012-13 की पहली तिमाही में विकास दर में हुए मामूली इजाफे में अहम रोल कृषि सेक्टर का है। और सरकार इस सेक्टर पर सबसे कम ध्यान दे रही है। आलम यह है कि इंडस्ट्री के खराब प्रदर्शन और उपेक्षा के बावजूद कृषि की बेहतरी से विकास में इन दोनों क्षेत्रों की भागीदारी का अंतर भी लगभग खत्म होता जा रहा है। 2012-13 की पहली तिमाही में यह अंतर केवल 0.7 फीसदी ही बचा है, जो अब तक भारतीय अर्थव्यवस्था में कम ही दिखा है।
चेतावनी को अनसुना करना: वर्ल्ड बैंक से लेकर इंटरनेशनल रेटिंग एजेंसियों तक सभी ने भारत की साख पर सवाल उठाते हुए अर्थव्यवस्था को लेकर गंभीर चेतावनी दी है। हाल ही में वर्ल्ड बैंक ने भारत में महंगाई को लेकर गंभीर चिंता जताई है। वहीं, कई एजेंसियों ने भारतीय कंपनियों की कर्ज रेटिंग को नकारात्मक बताकर अर्थव्यवस्था की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। आरबीआई गवर्नर ने भी भारतीय बैंकिंग प्रणाली से लेकर अर्थव्यवस्था तक सभी में सुधार को जरूरी बताते हुए चेतावनी जारी की है। लेकिन सरकार ने तो महंगाई पर काबू पा रही है और न ही रुपये की कीमत को थाम पा रही है।
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