News Delhi.पिछले दिनों नेपाल से दो वरिष्ठ नेता भारत आये और विभिन्न राष्ट्रीय राजनैतिक दलों के भारतीय नेताओं से भेंट की। उनकी वार्ताओं से यही निष्कर्ष निकला कि विश्व में अपनी हिन्दू पहचान के प्रति अभिमानी एकमात्र संवैधानिक हिन्दू राष्ट्र नेपाल सेकूलर रास्ते के छलावे में आकर न केवल हिन्दू राष्ट्र पद गंवा बैठा बल्कि एक अँधेरी लोकतान्त्रिक राह पर चल पड़ा जहाँ आज इस महान देश में उसके इतिहास का सबसे बड़ा संवैधानिक संकट आ खड़ा हुआ है। गत बारह वर्षों से वहां संसद के चुनाव नहीं हुए हैं, लगभग पंद्रह वर्षों से पंचायत के चुनाव लंबित हैं, आज वहां कोई चुनी हुई सरकार नहीं है, विभिन्न दल आपस में नेपाल के हित के लिए भी एकमत नहीं हो पा रहे हैं, मंत्रिमंडल केवल राष्ट्रपति और कार्यकारी प्रधानमंत्री की सलाह पर बना है, बजट पेश नहीं किया जा सकता इसलिए वोट आन अकाउंट से ही काम चलाना पड़ रहा है, और उस पर विदेशी पश्चिमी शक्तियाँ तथा चीन वहां की स्थिति का अपने अपने ढंग से लाभ उठाने का प्रयास कर रहे हैं।
वहां अब यह प्रश्न पूछा जा रहा है कि भारत के सेकूलर वामपंथियों के प्रोत्साहन तथा नेपाली माओवादियों के दबाव में जब नेपाल को उसके हिन्दू राष्ट्र पद से मुक्त करने का संवैधानिक कदम उठाया गया था तो बड़े जोर−शोर से उस कदम को नेपाल के विकास, लोकतंत्र के सशक्तिकरण इत्यादि से जोड़ा गया था। लेकिन क्या उसके बाद नेपाल का विकास बढ़ा? क्या नेपाल में लोकतंत्र का आदर्श रूप दिखा? क्या नेपाल से हिन्दू राष्ट्र पद समाप्त करने का जश्न मनाने वाले वहां के संविधान और नेपाली जनता की भावनाओं के अनुरूप एक स्थाई सरकार दे पाए? हिन्दू राष्ट्र पद समाप्त होने के बाद क्या नेपाली जनता अधिक सुखी और समृद्ध हुई? उलटे सब कुछ पहले से भी ज्यादा बिगड़ गया। लोकतान्त्रिक झगड़े अधिक बढ़े, राजनीतिक दलों में अविश्वास और मतभेद गहरे हुए, नेपाल एक भयानक आर्थिक संकट और बेरोजगारी के भंवर में फंस गया, संविधान सभा का गठन होने के बाद बार−बार उसकी अवधि बढ़ाई गयी फिर भी नया संविधान नहीं बन पाया, और जिस देश भारत के साथ नेपाल के विश्व में सर्वाधिक आत्मीय और प्रगाढ़ सम्बन्ध थे उसी देश के साथ सर्वाधिक कटुता और विरोध शुरू हो गया। भारत के तिरंगे का अपमान ही नहीं नेपाली मीडिया में भारत विरोध एक फैशन बन गया है और उसके विपरीत चीन, पाकिस्तान और बंगलादेश के प्रति एक अनापेक्षित लगाव दिखने का चलन चला है। यह स्थिति तब है जबकि नेपाली जनता और भारतीय जनता के बीच अभी भी आत्मिक सम्बन्ध कायम हैं, फिर भी चीन और पाकिस्तान के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं कहा जाता और भारत से सर्वाधिक सहायता प्राप्त करने के बावजूद भारत विरोध राजनीतिक और मीडिया के लाभ का विषय माना जाता है।
इस परिस्थिति में नेपाल में पश्चिमी शक्तियाँ अपना प्रभाव बढ़ाने की होड़ में हैं। इनमें सबसे खतरनाक ईसाई मिशनरी कार्य है जो हालैंड, जर्मनी, नार्वे, स्वीडन, अमरीका और ब्रिटेन के चर्चों द्वारा सहायता प्राप्त है। नेपाल में पचास हजार से ज्यादा एनजीओ तो पंजीकृत हैं और इतने ही गैर पंजीकृत एनजीओ की संख्या है। वहां के पहाड़ी क्षेत्रों और अब मधेशी प्रभाव के तराई क्षेत्रों में भी बहुत बड़ी संख्या में सामान्य हिन्दुओं के धर्मान्तरण का सतत प्रयास चल रहा है। एक अनुमान के अनुसार पहाड़ी क्षेत्रों में तीस प्रतिशत हिन्दू नेपाली ईसाई बन चुके हैं। धन तथा बढ़ती संख्या के प्रभाव से वे अब वहां की राजनीति को भी प्रभावित करने की स्थिति में आ गए हैं। यानि वह नेपाल जो पशुपतिनाथ की छत्रछाया में था अब धीरे−धीरे क्रास के साए में लाया जा रहा है।
उधर माओवादी बड़ी संख्या में अपने पूर्व गुरिल्ला सैनिकों को नेपाल की नियमित सेना में भर्ती करने के लिए प्रयास में आंशिक तौर पर सफल हो गए हैं। नेपाल के साथ हमारी लगभग सत्रह सौ किमी लम्बी सीमा है जो खुली है। वहां जाने के लिए अभी भी पासपोर्ट या वीसा की आवश्यकता नहीं होती। वहां आमतौर पर हमारी करेंसी बाजार में स्वीकार की जाती है। वहां के गोरखा हमारी फौज के शानदार सैनिक बनते हैं और माओवादी हिंसा के एक संक्षिप्त दौर के अलावा उनकी भरती बराबर जारी है। हमारे वरिष्ठ सैनिक अधिकारी हर वर्ष वहां की सौजन्य यात्रा पर जाते हैं और उससे भी बढ़कर, नेपाली समाज के साथ हमारे रोटी बेटी के सभ्यतामूलक सम्बन्ध हैं जो रिश्ता भारत और नेपाल के बीच है, वह भारत का किसी और देश के साथ नहीं है। हमारा धार्मिक और सांस्कृतिक ताना−बाना हमें बहुत गहराई के साथ एक दूसरे से जोड़ता है।
पर सत्य यह भी है कि नेपाल एक संप्रभुता सार्वभौमिक राज्य सत्ता है और उसकी सामरिक स्थिति के कारण अन्य देशों की भी नेपाल में रणनीतिक दिलचस्पी बढ़ी है। माओवादियों का उभार, चर्च संगठनों की अचानक बाढ़, पश्चिमी देशों की अरबों रुपये की डॉलर की सहायता, इन सबका नेपाल के जनजीवन और राजनीति पर बहुत तीव्रता से असर हो रहा है।
भारत अपनी ही राजनीतिक समस्याओं और भ्रष्टाचार के विरुद्ध युद्ध में रमा हुआ दिखता है। ऐसी स्थिति में क्या हम नेपाल के प्रति अपने कर्तव्य को भूल जाएंगे और वहां विदेशी शक्तियों के खेल को नजर अंदाज करते हुए अपनी सीमा पर एक और बांग्लादेश जैसी परिस्थिति निर्मित होने देंगे? नेपाल में वही होना चाहिए जो नेपाल की जनता चाहती है और जो उसकी संप्रभुता एवं अखंडता की रक्षा करे। इसके लिए भारत का यह कूटनीतिक धर्म है कि वह नेपाल का पूरा बंधु भाव के साथ सहयोग करे।
sabhar तरुण विजय prabhasakshi.com
No comments:
Post a Comment