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Wednesday, September 26, 2012

ऍफ़डीआई : यह विश्व बैंक का “अन्न दोष” है

लीना मेहेंदले
लगभग डेढ़ सौ वर्षों की गुलामी के बाद देश को स्वतंत्रता मिलने की घटना को बस पैंसठ वर्ष पूरे हुए हैं और हम इस स्वतंत्रता को फिर से गंवाने की कगार पर हैं और सच कहूं तो कहीं न कहीं यह डर भी है कि क्या हम इसे गंवा चुके हैं?
लड़ाई, हार, गुलामी, स्वतंत्रता इन शब्दों का सटीक अर्थ समझने के लिए थोड़ा सा इतिहास में झांकना उचित रहेगा। सन् 1756 की प्लासी की लड़ाई एक युद्ध की तरह लडी ग़ई और हम हार गए। युद्ध अर्थात् रूढ़ अर्थों वाला युद्ध जिसमें शस्त्र चले तलवार, भाले, बन्दूक, तोप, घोड़े इत्यादि। लोग मरे और लोगों ने मारा भी। लेकिन वह जमाना वैसे ही युद्ध लड़ने का जमाना था। आज ढाई सौ वर्षों के बाद जो जमाना चल रहा है, उसकी लड़ाईयां युद्ध की मार्फत कम और आर्थिक मोहरों की मार्फत अधिक लड़ी जाती हैं। जिसकी अर्थनीति चूंकि वह लड़ाई हारेगा।
लेकिन लड़ाई हारने का अर्थ जो तब था, वही आज भी है और आगे भी रहेगा। लड़ाई हारने का अर्थ है कि हमारी अर्थव्यवस्था हमेशा उनकी अर्थव्यवस्था से कमजोर होगी। हम हमेशा कच्चा माल बेचते रहेंगे और पक्का माल खरीदते रहेंगे, जिससे समय-दर-समय हमारी (क्रय शक्ति) पर्चेसिंग पॉवर या अर्थसत्ता कमजोर होती चलेगी। हम शोषण के पात्र और शोषित होते चलेंगे और जिस दिन हमारा कच्चा माल खत्म हुआ कि हम अभाव में जीने के लिए छोड़ दिए जाएंगे।
तो पहला मुद्दा हुआ कि आज की लड़ाईयां शस्त्रों की अपेक्षा अर्थनीति से लड़ी जाती हैं, और हमारी अर्थनीति को हार से बचाना आवश्यक है। दूसरा मुद्दा आर्थिक दोहन का। यदि हम कच्चा माल बेचते चलेंगे और पक्का माल खरीदते चलेंगे और इस दौरान पक्का माल बेचने वाली परदेसी कम्पनियां अपना प्रॉफिट-नफा यहां से अपने-अपने देश ले जाएंगे तो तीव्र गति से कैपिटल फ्लाइट जारी रहेगा और वह लीगल भी कहलाएगा।
तीसरे मुद्दे पर आने से पहले फिर एक बार स्वतंत्रता की लड़ाई के इतिहास में झांकते हैं। उस जमाने में (सन् 1910 से 1949 का कालखंड) एक इंडियन नेशनल कांग्रेस नामक पार्टी हुआ करती थी जिसके अहम् नेता बने महात्मा गांधी। गांधीजी ने सबको यही अर्थनीति समझाई और स्वदेशी का मंत्र दिया। मिल के कपड़े सस्ते थे, सुन्दर और लुभावने थे, देशी बुने हुए कपड़े मोटे-खुरदुरे और महंगे भी थे। फिर भी स्वदेशी का मंत्र प्रमाण मानकर कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता विदेशी कपड़ों की होली जलाने का आयोजन करते थे। गांधीजी की स्वदेशी आने से पहले अंग्रेजों ने भी इस बात को समझा था- इसीलिए जुलाहों के अंगूठे कटवाए थे, इसीलिए चेचक को रोकने वाली इम्युनायजेशन की पद्धति, जो पंद्रहवीं (या शायद उससे भी पहले) सदी से चली आ रही थी, उसे गुनाह करार दिया, आयुर्वेद जो खूबसूरती से विकेन्द्रित हुआ था, उसे तहस-नहस करने के लिए सारे सम्मान ऍलोपथी की ओर बढ़ा दिए… वगैरह-वगैरह। कहने का अर्थ इस बात को गांधीजी ने समझा उससे पहले अंग्रेजों ने समझा था।
अब तीसरा मुद्दा किसी देश की सम्पत्ति या समृध्दि जीडीपी से नहीं, बल्कि जीएनपी से बढ़ती है। जीडीपी का अर्थ हुआ ग्रॉस डोमेस्टिक प्रॉडक्ट आपके देश की भौगोलिक सीमाओं के अंदर होने वाला कुल उत्पादन। फिर भले ही एक्साइड जैसी कम्पनियां प्रॉडक्शन यहां करती हों और मुनाफा अपने देश में ले जाती हों, और भोपाल गैस कांड की जिम्मेदारी से बच निकलती हों- लेकिन जीडीपी की ओर टकटकी लगाने वाले अर्थवेत्ता इसी को विकास कहते हैं। इससे उल्टा जीएनपी का शास्त्र है। ग्रॉस नेशनल प्रॉडक्ट मापते समय दूसरे देश के आए इन्वेस्टर ने कितनी लागत आपके देश में लगाई उसे नहीं जोड़ने बल्कि जो मुनाफा वे अपने दशे में ले गए थे उसे घटाते हैं और आप के देश के नागरिकों ने यदि विदेशों में इन्वेस्ट (निवेश) किया है और मुनाफा कमाकर देश में भेजा है, तो उसे जोड़ते हैं। इस प्रकार आपकी आर्थिक क्षमता की असली पहचान बनाता है जीएनपी न कि जीडीपी। फिर भी हमारी रिजर्व बैंक, हमारे सारे अर्थशास्त्री और हमारी सरकार हमें जीडीपी का गाजर क्यों दिखाती है? क्योंकि बेसिंग वाले प्राणी को ही गाजर दिखाया जाता है।
अब आते हैं सबसे प्रमुख मुद्दे पर। देश का दोहन करने वाले इस एफडीआई की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्योंकि देश के पास निवेश करने के लिए पैसा नहीं है। अर्थात् पहले देश का पैसा भ्रष्टाचार में लूटा। फिर उसे स्विस बैंक में जमा कराओ- फिर कहो, देश को पैसा और निवेश की आवश्यकता है। उधर स्विस बैंकों से कर्जे लेकर कई विदेशी इन्वेस्टर आपके यहां निवेश करेंगे। अर्थात् हमारे ही पैसे लेकिन नाम उनका। क्या गारंटी है कि इन निवेशकों के साथ स्विस बैंक के भारतीय खातेदारों की छिपी शेयर होल्डिंग नहीं है? क्या इसे हम कभी भी समय रहते उजागर कर पाएंगे?
महाभारत के एक प्रसंग में भीष्म से पूछा जाता है कि यद्यपि पांडव आपके प्रिय हैं और आपको ज्ञात है कि उन्हीं का पक्ष सही है, फिर भी आप युद्ध में कौरवों का साथ क्यों दे रहे हैं। तब भीष्म ने कहा था कि जिसका अन्न खाया हो उसका विरोध करने का सामर्थ्य और हिम्मत जुटा पाना कठिन है। हमारे भी जाने-माने कई अर्थवेत्ता वर्ल्ड बैंक का अन्न खाते रहे हैं। जो हालत भीष्म की हुई, वही उनकी भी है। भीष्म कौरवों की ओर से लड़ने के लिए मजबूर थे- ये भी वर्ल्ड बैंक से संचालित होने के लिए मजबूर हैं। विश्व के महान मैगजीन वाशिंगटन पोस्ट जैसी पत्रिका जब हमारे प्रधानमंत्री को दुर्बल बनाती है, तब क्या ऐसा नहीं लगता कि उन्हें हिंट दिया जा रहा हो कि जब तक आप हमारे निवेश का रास्ता नहीं खोलेंगे, तब तक ऐसे ही लताड़े जाएंगे? बात केवल मनमोहनजी के स्वाभिमान की नहीं है- यह देश के स्वाभिमान की और प्रधानमंत्री के पद की गरिमा की भी बात है।
लेकिन हम किस मुंह से कह सकते हैं कि नहीं चाहिए तुम्हारा एफडीआई का निवेश? जब निवेश लायक पैसा आपने पहले ही और अपनी मर्जी से, अपने भ्रष्टाचार के माध्यम से उनकी जेबों में भर रखा हो?
हमारे देश में एक और राजकीय पक्ष है बीजेपी जो कई बार स्वदेशी का नारा लगाते हैं। एक बार खादी की बाबत उनसे चर्चा हुई। मैंने कहा गांधीजी ने खादी को अपनाते हुए एक नहीं, दो फलसफे बताए थे। पहला तो था कि विदेशी मिलों का मुनाफा तोड़ो- दूसरा था कि हमारे गरीब बुनकर के पास जीने का कोई साधन रहने दो- जो इस विकेन्द्रित प्रणाली में ही संभव है- इसीलिए खादी का प्रयोग है। लेकिन बीजेपी मित्रों ने फरमाया कि गांधीजी दूसरे मुद्दे में गलत थे। गरीब बुनकर की अकार्यक्षमता (मशीन के बजाय हाथ से काम करने के कारण) की बड़ाई क्यों करे? भले ही इससे उसकी रूखी-सूखी रोटी चलती हो, लेकिन है तो वह अकार्यक्षम ही। हमारी स्वदेशी की व्याख्या यों है कि यदि कपड़ा मिलें हमारे देश के नागरिकों की मिल्कियत हो, तो वे स्वदेशी मिलें होंगी। गरीब जाकर मिल में काम करें। उसे भी अधिक आमदनी मिलेगी। केन्द्रीकरण, मिलें, यही उचित अर्थनीति है, न कि विकेन्द्रीकरण। क्यों कि केन्द्रीकरण से गरीब बुनकर भी जल्दी से जल्दी अपनी दरिद्रता से मुक्ति पा सकता है।
इस अर्थशास्त्र को थोड़ा रूककर अर्थात कार्यक्षमता बढ़ेगी।  समझने की आवश्यकता है क्योंकि रिटेल चेन के सभी चहेते यही कहेंगे कि फुटकर विक्रेता की अपेक्षा रिटेल चेन चलाने से अच्छा, ताजा माल मिलेगा जो सस्ता भी होगा। लेकिन मिल वाले और इस गणित में भी एक बात का गुणा-भाग जोड़-घटा अभी किसी ने नहीं किया है। विकेन्द्रित प्रॉडक्शन करने वाला बुनकर हो या विकेन्द्रित सर्विस सेक्टर का सब्जी बेचने वाला हो यदि आज उनकी संख्या एक सौ है, तो कल आने वाली केन्द्रित व्यवस्था में (चाहे मिल हो या रिटेल-चेन के मालिक) केवल पांच या दस का समावेश हो सकेगा- जो निश्चित ही आज की अपेक्षा अधिक कमाई करेंगे। लेकिन बाकी नब्बे तो निठल्ले हो जाएंगे। उनकी रोजी-रोटी कहां से आएगी? अमरीका या प्रगत यूरोपीय देशों में ऐसे लोगों के लिए भारी पैमाने पर सोशल सिक्युरिटी सिस्टम चलाई जाती है लेकिन वैसी अपने देश में चलाने लायक आर्थिक क्षमता तो हमारी नहीं है, फिर इनका क्या होगा? नक्सलवाद? आत्महत्या? कुछ और? यह गणित मुझे झझकोरता है क्योंकि मैं अर्थव्यवस्था नहीं हूं, लेकिन इसका तर्कसंगत उत्तर मुझे अब तक किसी से मिला नहीं है। यदि किसी के पास आंकड़ों समेत उत्तर है तो वह भी देश का बनाया जाए।
मैं नहीं मानती कि विकेन्द्रीकरण सर्वथा गलत है और विकेन्द्रीकरण ही हर मर्ज की दवा है। लेकिन फिर सारे अर्थशास्त्री आज महिला-अल्प-बचत-गुटों की ओर आशाभरी नजरों से क्यों देख रहे हैं? केन्द्रीकृत बैंकिंग व्यवस्था में ये अल्प-बचत गुट ही तो विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं। और तमाम अर्थशास्त्री इन्हें संकटमोचक मानते हैं। तो फिर वही विकेन्द्रित व्यवस्था फुटकर विक्रेताओं के हाथ से छीनकर रिटेल चेन वालों के हाथ क्यों सौंपी जा रही है? और वह भी विदेशी निवेशकों के हाथ क्यों?
ये सारे प्रश्न और सरकार की सारी उतावली गतिविधियां कहीं न कहीं तो इशारा करती हैं कि हो सकता है कि हम भारतीय आज के युग की रणनीति में हार चुके हैं, या हार रहे हैं। अर्थशास्त्र की समझ न रखने वाला व्यक्ति आज भले ही सामान्य कहलाता हो, लेकिन महंगाई की मार वही झेल रहा है।
लीना मेहेंदले, लेखिका वरिष्ठ आई ए एस अफसर हैं.
sabhar hastakshep

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