गाँव सॆ मॆरॆ जब पहलॆ, आती थी चिट्ठी ॥
वह स्वप्न-परी बन, मुस्काती थी चिट्ठी ॥
शब्दॊं सॆ उसकॆ स्नॆह,की वर्षा हॊती थी,
बॆटॆ की तन्हाई मॆं, माँ कितना रॊती थी,
पंक्ति-पंक्ति मॆं प्यार, पिता का बहता था,
कब आयॆंगॆ भैया, छॊटा भाई कहता था,
उन सबका चॆहरा भी,दिखलाती थी चिट्ठी ॥
आशिष की अमृत-धार, बहाती थी चिट्ठी ॥१॥
गाँव सॆ मॆरॆ जब पहलॆ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, ,,
बहना की तीखी कुछ,तंज भरी सी बातॆं,
लड़ना-भिड़ना चिड़ना, की सारी सौगातॆं,
भैया यॆ लाना,वॊ लाना,की सब फ़रियादॆं,
ख़त मॆं दिख जाती थीं, नई पुरानी यादॆं,
सावन मॆं राखी भर भर, लाती थी चिट्ठी ॥
अम्मा बाबूजी जैसा, बतियाती थी चिट्ठी ॥२॥
गाँव सॆ मॆरॆ जब पहलॆ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
,,
भॆंट भलाई और कुशल, मंगल की पाती,
पल-भर मॆं वह लाखॊं, खुशियां दॆ जाती,
याद दिला जाती थी,सारॆ दिन मस्ती कॆ,
और दिखाती थी चौबारॆ,अपनी बस्ती कॆ,
पढकर मन कॊ कितना,हरषाती थी चिट्ठी ॥
सच कहता हूं, दर्पण बन, जाती थी चिट्ठी ॥३॥
गाँव सॆ मॆरॆ जब पहलॆ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, ,,
ममता और आशिष की, मूरत हॊती थी,
चिट्ठी आना शुभ-घड़ी, मुहूरत हॊती थी,
एक कागज़ पर कितनॊं, की सूरत हॊती,
तार किया जाता जब,बहुत ज़रूरत हॊती,
अनहॊनी सॆ हमकॊ, बहुत रुलाती थी चिट्ठी ॥
फ़िर खुद इस दिल कॊ, सहलाती थी चिट्ठी ॥४॥
गाँव सॆ मॆरॆ जब पहलॆ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, ,,,,,,,
एक ख़त मॆं जानॆ,कितनॆ संदॆश भरॆ हॊतॆ,
अम्मा बाबूजी कॆ, लाखॊं निर्दॆश भरॆ हॊतॆ,
कठिन ज़मानॆ की, तस्वीर रखा करतॆ थॆ,
शॆष कुशल-मंगल सॆ,अंत लिखा करतॆ थॆ,
बिल्कुल अम्मा बाबूजी,बन जाती थी चिट्ठी ॥
सब निश्छल रिश्तॆ यही, निभाती थी चिट्ठी ॥५॥
गाँव सॆ मॆरॆ जब पहलॆ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, ,,,,,,,
टुकुर टुकुर आँखॆं तकतीं,ख़त आनॆ की राहॆं,
और डाकियॆ कॆ थैलॆ पर,रहती रॊज निगाहॆं,
अब लायॆगी,कब लायॆगी, नया संदॆशा पाती,
हर धड़कन सीनॆ मॆं बस,बात यही दॊहराती,
इन्तज़ार की परिभाषा, सिखलाती थी चिट्ठी ॥
जीवन कॆ कैसॆ कैसॆ, रंग दिखाती थी चिट्ठी ॥६॥
गाँव सॆ मॆरॆ जब पहलॆ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, ,,,,,,,
कवि-"राज बुन्दॆली"
वह स्वप्न-परी बन, मुस्काती थी चिट्ठी ॥
शब्दॊं सॆ उसकॆ स्नॆह,की वर्षा हॊती थी,
बॆटॆ की तन्हाई मॆं, माँ कितना रॊती थी,
पंक्ति-पंक्ति मॆं प्यार, पिता का बहता था,
कब आयॆंगॆ भैया, छॊटा भाई कहता था,
उन सबका चॆहरा भी,दिखलाती थी चिट्ठी ॥
आशिष की अमृत-धार, बहाती थी चिट्ठी ॥१॥
गाँव सॆ मॆरॆ जब पहलॆ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
बहना की तीखी कुछ,तंज भरी सी बातॆं,
लड़ना-भिड़ना चिड़ना, की सारी सौगातॆं,
भैया यॆ लाना,वॊ लाना,की सब फ़रियादॆं,
ख़त मॆं दिख जाती थीं, नई पुरानी यादॆं,
सावन मॆं राखी भर भर, लाती थी चिट्ठी ॥
अम्मा बाबूजी जैसा, बतियाती थी चिट्ठी ॥२॥
गाँव सॆ मॆरॆ जब पहलॆ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
भॆंट भलाई और कुशल, मंगल की पाती,
पल-भर मॆं वह लाखॊं, खुशियां दॆ जाती,
याद दिला जाती थी,सारॆ दिन मस्ती कॆ,
और दिखाती थी चौबारॆ,अपनी बस्ती कॆ,
पढकर मन कॊ कितना,हरषाती थी चिट्ठी ॥
सच कहता हूं, दर्पण बन, जाती थी चिट्ठी ॥३॥
गाँव सॆ मॆरॆ जब पहलॆ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
ममता और आशिष की, मूरत हॊती थी,
चिट्ठी आना शुभ-घड़ी, मुहूरत हॊती थी,
एक कागज़ पर कितनॊं, की सूरत हॊती,
तार किया जाता जब,बहुत ज़रूरत हॊती,
अनहॊनी सॆ हमकॊ, बहुत रुलाती थी चिट्ठी ॥
फ़िर खुद इस दिल कॊ, सहलाती थी चिट्ठी ॥४॥
गाँव सॆ मॆरॆ जब पहलॆ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
एक ख़त मॆं जानॆ,कितनॆ संदॆश भरॆ हॊतॆ,
अम्मा बाबूजी कॆ, लाखॊं निर्दॆश भरॆ हॊतॆ,
कठिन ज़मानॆ की, तस्वीर रखा करतॆ थॆ,
शॆष कुशल-मंगल सॆ,अंत लिखा करतॆ थॆ,
बिल्कुल अम्मा बाबूजी,बन जाती थी चिट्ठी ॥
सब निश्छल रिश्तॆ यही, निभाती थी चिट्ठी ॥५॥
गाँव सॆ मॆरॆ जब पहलॆ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
टुकुर टुकुर आँखॆं तकतीं,ख़त आनॆ की राहॆं,
और डाकियॆ कॆ थैलॆ पर,रहती रॊज निगाहॆं,
अब लायॆगी,कब लायॆगी, नया संदॆशा पाती,
हर धड़कन सीनॆ मॆं बस,बात यही दॊहराती,
इन्तज़ार की परिभाषा, सिखलाती थी चिट्ठी ॥
जीवन कॆ कैसॆ कैसॆ, रंग दिखाती थी चिट्ठी ॥६॥
गाँव सॆ मॆरॆ जब पहलॆ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
कवि-"राज बुन्दॆली"
No comments:
Post a Comment