सचिन धीमान
भारत के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी ने अपनी माता से प्राप्त की शिक्षा में से उन्हें जो तीन बातों का ज्ञान दिया गया है वह हमेशा उन्हें ध्यान में रखकर आगे बढे और अपने अन्तिम सांसों तक उन्होंने अपनी माता से प्राप्त की शिक्षा से ओतप्रोत होकर देशहित में कार्य किया। उनके मन में बचपन से ही उनके हृदय में देशप्रेम भावना थी और वह अंग्रेजों तथा राजाओं से नपफरत किया करते थे इसलिए वह देश के सर्वोच्चत पद पर रहते हुए भी भारत के प्रथम नागरिक कहलाने के बाद भी वह एक आम नागरिक की तरह जीवन जिया करते थे। उनके ज्ञान का भंडार विशाल था और वे वास्तविक रूप से ‘‘धनी ही थे’’ आध्यात्मिक क्षेत्रा उनका अध्ययन गहन था। उन्होंने भारत के सभी प्रमुख र्ध्मो और मतों का अध्ययन किया। सिखमत के तो वे पारम्गत वि(ान और ज्ञानी थे ही, बौ( जैन, सनातन और वैदिक मत के सि(ांतों से भी उनका पूरा परिचय था। इतना ही नहीं ज्ञानी जी ने कुरान शरीफ का भी अध्ययन किया हुआ था।
भारत के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी इस महान राष्ट्र के एक महान राष्ट्रपति रहे है। ज्ञानी जी का जन्म पंजाब में संध्वा नाम के एक छोटे से गंाव में 5 मई 1916 को विश्वकर्मावंश के रामगढिया के साधरण परिवार में माननीय श्री किशन सिंह जी के तीसरे पुत्रा के रूप में हुआ। ज्ञानी जी का असली नाम जन रैल सिंह था। ज्ञानी जी बचपन से ही होनहार प्रतिभाशाली व गुणी थे। ज्ञानी जी को अपनी मां के प्रतिबडी श्र(ा और प्रेम था। ज्ञानी को उनकी मंा ने उन्हें विशेष रूप से तीन बातों की शिक्षा दी थी- परमात्मा, अपनी माता और मातृभूमि के लिए सच्चा प्रेम इन्हीं बातों की प्रेरणा से ज्ञानी जी ने 1928 को पंजाब रियासत प्रजा-मंडल की स्थापना की और जब 23 मार्च 1931 भारत मां के तीन सपूतों-भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को ब्रिटिश सरकार ने पफंासी दे दी तो उनके हृदय में देश प्रेम की ज्वाला भडक उठी और उन्हें अंग्रेजो और राजाओं से नपफरत हो गई। ज्ञानी जी का गंाव भी तत्कालीन पफरीदकोट रियासत के राजा के आध्ीना था।वे भारत की स्वतंत्राता के लिए संघर्ष कर रहे, क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आये और मोमबत्तियों की लौ पर हाथ रखकर कसम खाई कि मैं भारत मां की स्वतंत्राता के लिए बलिदान देने के लिए प्रस्तुत हूं। इसलिए 1932 में रियासती अकाली जत्था के उप प्रधान बने तथा 1934 को फरीदकोट के राजा हरींद्र सिंह के विरू( संघर्ष का शुभारम्भ किया और इसी वर्ण 6 अगस्त 1934 को उनका विवाह हो गया। जब वे जेल में थे तो एक बार किसी बात पर क्रु( होकर जेलर ने इनसे इनका नाम पूछा तो वे सीनातान कर बोले जेल सिंह जेलर ने गुस्से में कहा क्या मतलब जनरैल सिंह ने पिफर कहा ‘‘जेल सिंह’’ मतलब जेल का शेर जनरल सिंह को यातनाएं मिलती रही और वह चिख-चिख कर बोलते रहे जेल सिंह-जेलसिंह दूसरे कैदियों ने जब इनके इस अदम्य साहस को देखा तो बाद में सब उन्हें जेल सिंह के नाम से पुकारने लगे यही से इनका नाम जनरैल सिंह से ज्ञानी जैल सिंह हो गया। 1936 में ज्ञानी के सर से पिता का साया उठ गया तथा अगस्त 1636 में ही उन्हें सैक्रेट्री, जिला पफरीदकोट अकाली जत्थ चुना गया और दो सितम्बर 1936 को स्वर्गपुरी कोटपुरा में एक विशाल सभा को आयोजन किया और 24 जुलाई 1938 में ज्ञानी जी ने जमीदार सभा की स्थापना की और 1938 में ज्ञानी जी दूसरी बार गिरफ्रतार हुए 1943 तक कठौर कारावास सहन कर अमृतसर, लाहौर, पंजाब साहिब की यात्रा कर 1943 तक मिशनरी के रूप में प्रचार कार्य किया और इसी वर्ष 8 अपै्रल 1943 को राष्ट्रध्वजरोहण के लिए विशाल जनसभा का आयोजन किया तथा 8 मई 1943 में ही पफरीदकोट में रोण दिवस का आयोजन कर पं. जवाहर लाल नेहरू को आमन्त्रिात किया तथा 1947 में अपने द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘हम क्या चाहते है’’ का विमोचन किया तथा 30 जनवरी 1948 को उनके गांध्ी जी के बलिदान के कुछ समय पूर्व सेठ रामनाथ, बाबू ब्रजभान, इंद्रसिंह चक्रवर्ती के साथ भेंट कर उनसे राष्ट्र के प्रतिशिक्षा ग्रहण की 29 पफरवरी 1948 को पफरीदकोट के राजा के विरू( एक विशाल सभा एवं जुलूस का ज्ञानी जी द्वारा समायोजन किया गया और 1 मार्च 1948 को ऐतिहासिक बलिदान दिवस समानांतर सरकार की स्थापना तथा 20 जनवरी 1948 को ज्ञानी जी को राणे वाला के मंत्रिमंडल में मंत्राी बनाया और 23 मई थे। वे एक विलक्षण प्रतिभा के ध्नी थे। भलेही उन्हें किसी विद्यालय या कालेज में शिक्षा प्राप्त करने का अवसर न मिला हो। उनके ज्ञान का भंडार विशाल था और वे वास्तविक रूप से ‘‘धनी ही थे’’ आध्यात्मिक क्षेत्रा उनका अध्ययन गहन था। उन्होंने भारत के सभी प्रमुख र्ध्मो और मतों का अध्ययन किया। सिखमत के तो वे पारम्गत वि(ान और ज्ञानी थे ही, बौ( जैन, सनातन और वैदिक मत के सि(ांतों से भी उनका पूरा परिचय था। कुरान शरीफ उन्होंने जेल में पढी और बाइबिल का भी अध्ययन किया अपनी मृत्यु से कुछ ही दिन पूर्व वे कोटा में एक चर्च का शिलान्यास कर लौटे थे। 24 जनवरी 1968 को ज्ञानी जी की रिटायर्ड जस्टिस गुरूदेव कमीशन के रू-ब-रू पेसी हुई तथा 8 अगस्त 1972 को गुरूदेव कमीशन की वैद्यता को पंजाब हाईकोर्ट में चुनौती दी तथा 8 अक्टूबर 1972 केा गुरूदेव कमीशन द्वारा गैरजामनती वारंट जारी हुआ तथा 9 अक्टूबर 1978 को उनकी गिरफ्रतारी की पेशगी जमानत जनवरी 1980 में वे लोकसभा सदस्य चुने गए और 14 जनवरी को भारत सरकार के गृहमंत्राी चुने गए गृहमंत्राी बनते ही उन्होंने स्वतंत्राता सेनानियों को दी जाने वाली पेंशन की शर्ताें का उदार बनाया और इसे ‘‘स्वतंत्राता सेनिक सम्मान पेंशन ’’ का नाम दिया। उनका कहना था कि यह कोई दान नहीं है। ज्ञानी जी स्वतंत्राता सेनानियों को अपने परिवार का सदस्य मानते थे।
गृहमंत्राी काल में ही ज्ञानी जी कानपुर के विश्वकर्मा सम्मेलन के मुख्य अतिथि बने तथा 12 जुलाई 1988 को राष्ट्रपति चुनाव के लिए प्रत्याशी चुना गया तथा 25 जुलाई 1982 को उन्होंने भारत के राष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण की। राष्ट्रपति बनते ही उन्होंने सभी स्वतंत्राता सेनानियों को राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित किया। उन्होंने यह परम्परा भी डाली कि स्वतंत्राता दिवस गणतंत्रा दिवस के अवसरोपंरात पहले दिन स्वतंत्राता सेनानियों के सम्मान में पार्टी का आयोजन हुआ करेगा। वे लोकतंत्रा के पक्के समर्थक थे। वे कहते थे कि ‘‘विपक्ष को कभी शत्राु नहीं समझना चाहिए लोकतंत्रा की सपफलता में विपक्ष का भी सहयोग होता है। इसलिए राष्ट्रपति बनने के बाद वे सभी राजनैतिक दलों के साथ निष्पक्ष रूप से मिलते थे क्योंकि उनका कोई राजनैतिक दल नहीं रह गया था। बाद में भी इसी नियम पर कायम रहे। 30 सितम्बर-31अक्टूबर 1982 को वे अमेरिका में दिल का आपरेशन कराने गए। टैक्सांस हार्ट इंस्टीट्यूट हास्टेन में सपफल ऑपरेशन हुआ। 16 अक्टूबर 1985 में उन्होंने लक्ष्मद्वीप की यात्रा की 21 जुलाई 1983 को नेपाल यात्रा की और पुनः 30 अक्टूबर 1983 को विदेशों में यात्रा की। मेहनत परिश्रम व लगन के बल पर एक छोटे से परिवार से उठकर ज्ञानी जी भारत के सच्चे सपूत सि( हुए। ज्ञानी जी कहा करते थे कि ‘‘परिश्रम का कोई विकल्प नहीं’’ इसीलिए उन्होंने पूरे जीवन संघर्ष किया। संत ज्ञानी जैल सिंह विश्वकर्मा समाज के अमूल्य रत्न ही नहीं बल्कि देश के महानायक भी थे। कौन जानता था कि 27 नवम्बर 1994 को यमुना नगर के खालसा कालेज के प्रांगण में कालेज की रजत जयंती के अवसर पर दिए उनके भाषण के यह अंतिम शब्द उनके जीवन की संध्या के संकेत थे। ‘‘उजाले उनकी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये’’
उस दिन वे बडे प्रसन्नचित और स्वस्थ नजर आये थे। उसी दिनशाम को वे चंडीगढ राजभवन में विश्राम के लिए चले आये। यहां वह दो दिन के विश्राम के लिए आये थे। किन्तु किसे पता था कि 29 नवम्बर 1994 को आनंद साहिब में मत्था टेककर वापस आते समय दुर्भाग्य वश रोपण के निकट एक सडक दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हो जाने के बाद चंडीगढ के पीजीआई अस्पताल में 26 दिनों तक जीवन मृत्यु का अंतिम संघर्ष में 25 दिसम्बर 1994 को प्रातः सात बजकर 24 मिनट पर हम सबसे तथा राष्ट्र से बिदा हो गए। ज्ञानी जी अपनी कृतियों के लिए हम सबके बीच सदा-सदा के लिए अमर रहेंगे।
गृहमंत्राी काल में ही ज्ञानी जी कानपुर के विश्वकर्मा सम्मेलन के मुख्य अतिथि बने तथा 12 जुलाई 1988 को राष्ट्रपति चुनाव के लिए प्रत्याशी चुना गया तथा 25 जुलाई 1982 को उन्होंने भारत के राष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण की। राष्ट्रपति बनते ही उन्होंने सभी स्वतंत्राता सेनानियों को राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित किया। उन्होंने यह परम्परा भी डाली कि स्वतंत्राता दिवस गणतंत्रा दिवस के अवसरोपंरात पहले दिन स्वतंत्राता सेनानियों के सम्मान में पार्टी का आयोजन हुआ करेगा। वे लोकतंत्रा के पक्के समर्थक थे। वे कहते थे कि ‘‘विपक्ष को कभी शत्राु नहीं समझना चाहिए लोकतंत्रा की सपफलता में विपक्ष का भी सहयोग होता है। इसलिए राष्ट्रपति बनने के बाद वे सभी राजनैतिक दलों के साथ निष्पक्ष रूप से मिलते थे क्योंकि उनका कोई राजनैतिक दल नहीं रह गया था। बाद में भी इसी नियम पर कायम रहे। 30 सितम्बर-31अक्टूबर 1982 को वे अमेरिका में दिल का आपरेशन कराने गए। टैक्सांस हार्ट इंस्टीट्यूट हास्टेन में सपफल ऑपरेशन हुआ। 16 अक्टूबर 1985 में उन्होंने लक्ष्मद्वीप की यात्रा की 21 जुलाई 1983 को नेपाल यात्रा की और पुनः 30 अक्टूबर 1983 को विदेशों में यात्रा की। मेहनत परिश्रम व लगन के बल पर एक छोटे से परिवार से उठकर ज्ञानी जी भारत के सच्चे सपूत सि( हुए। ज्ञानी जी कहा करते थे कि ‘‘परिश्रम का कोई विकल्प नहीं’’ इसीलिए उन्होंने पूरे जीवन संघर्ष किया। संत ज्ञानी जैल सिंह विश्वकर्मा समाज के अमूल्य रत्न ही नहीं बल्कि देश के महानायक भी थे। कौन जानता था कि 27 नवम्बर 1994 को यमुना नगर के खालसा कालेज के प्रांगण में कालेज की रजत जयंती के अवसर पर दिए उनके भाषण के यह अंतिम शब्द उनके जीवन की संध्या के संकेत थे। ‘‘उजाले उनकी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये’’
उस दिन वे बडे प्रसन्नचित और स्वस्थ नजर आये थे। उसी दिनशाम को वे चंडीगढ राजभवन में विश्राम के लिए चले आये। यहां वह दो दिन के विश्राम के लिए आये थे। किन्तु किसे पता था कि 29 नवम्बर 1994 को आनंद साहिब में मत्था टेककर वापस आते समय दुर्भाग्य वश रोपण के निकट एक सडक दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हो जाने के बाद चंडीगढ के पीजीआई अस्पताल में 26 दिनों तक जीवन मृत्यु का अंतिम संघर्ष में 25 दिसम्बर 1994 को प्रातः सात बजकर 24 मिनट पर हम सबसे तथा राष्ट्र से बिदा हो गए। ज्ञानी जी अपनी कृतियों के लिए हम सबके बीच सदा-सदा के लिए अमर रहेंगे।
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